ठेस
बेटे भी आजकल विदा ही हो जाते हैं।
दे कर माँ बाप को एक कागज़ का टुकड़ा, जिस पर लिखा होता है एक फोन नंबर।
जल्दी जल्दी घर आने की एक दिलासा।
और सेट होते ही अपने पास बुला लेने की एक आशा।
वो कमरा अब अक्सर खाली ही रहता है, बस दीवारों पर चिपके तेंदुलकर और ब्रूस ली आपस में बतिया लेते हैं कभी।
हिन्दी और इंग्लिश गानों की कैसेट्स जिनसे चिढ़ कर माँ फेंक देने की धमकी देती थीं आज भी बाकायदा रोज़ साफ़ होती हैं कपड़े से।
स्टोर रूम में सालों से रखे हैं अब भी
एक बैट और दो रैकेट।
छत के टीन शेड में वो ज़ंग लगी साइकिल भी जिसकी चेन ना जाने कितनी बार पिताजी ने चढाई थी।
आँगन में वो पुरानी बाइक आज भी एक पुरानी चादर से ढकी है जिसे ज़िद ज़िरह करके कितनी दफा मैकेनिक के पास भेजा गया था मॉडिफाइड करने।
डम्बल और लकड़ी की बेंच आज भी माँ ने कबाड़ी को नहीं बेचे।
और
छत के कड़े से चेन बाँध कर कसरत करने का जुगाड़ जो अब घड़ी के पेंडुलम सा हिलता रहता है,
शायद समय को आगे नहीं पीछे और पीछे अतीत में ले जाता है रोज़, हर रोज़।
................बेटे भी तो विदा हो ही जाते हैं आजकल.......
(साभार)
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